Sant Shri Asharamji Bapu

Sant Shri Asharamji Bapu is a Self-Realized Saint from India, who preaches the existence of One Supreme Conscious in every human being.

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संत श्री आशारामजी बापू

भारत के संत श्री आशारामजी बापू आत्मज्ञानी संत हैं, जो मानवमात्र मे एक सच्चिदानंद इश्वर के अस्तित्व का उपदेश देते है

पादुका पंचक स्तोत्र

 श्री गुरु पादुका पंचकम्


ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यों |

नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः ||

आचार्य सिध्देश्वर पादुकाभ्यों

नमोस्तु लक्ष्मीपति पादुकाभ्यः ||1||

 कामादि सर्प व्रजगारुडाभ्यां |

विवेक वैराग्य निधि प्रदाभ्यां ||

बोध प्रदाभ्यां द्रुत मोक्षदाभ्यां |

नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||2||

अनंत संसार समुद्रतार,

नौकायिताभ्यां स्थिर भक्तिदाभ्यां |

जाक्याब्धि संशोषण बाड़याभ्यां,

नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||3||

ऊँकार ह्रींकार रहस्ययुक्त

श्रींकार गुढ़ार्थ महाविभुत्या |

ऊँकार मर्मं प्रतिपादिनीभ्यां

नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||4||

होत्राग्नि, हौत्राग्नि हविष्य होत

होमादि सर्वकृति भासमानम् |

यद ब्रह्म तद वो धवितारिणीभ्यां,

नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||5||

गुरु स्तवन

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः |

गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ||

ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति पूजामूलं गुरोः पदम् |

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ||

अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् |

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ||

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव |

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ||

ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं 

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम् ||

एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् |

भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि |

श्री सदगुरुदेव के चरणकमलों का महात्म्य

सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदांबुजम् |

वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात्संपूजयेद् गुरुम् ||

    गुरु सेवा श्रुतिरूप श्रेष्ठ रत्नों से सुशोभित चरणकमलों वाले हैं और वेदान्त के अर्थों के प्रवक्ता हैं | इसलिए श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिए |

देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थं वदामि तत् |

सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पाद्सेवनात् ||

    जिस गुरुदेव के पादसेवन से मनुष्य सर्व पापों से विशुद्धात्मा होकर ब्रह्मरूप हो जाता है वह तुम पर कृपा करने के लिये कहता हूँ |

शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः |

गुरोः पादोदकं समयक् संसारार्णवतारकम् ||

    श्री गुरुदेव का चरणामृत पापरूपी कीचड़ का सम्यक् शोषक है, ज्ञानतेज का सम्यक उद्यीपक है और संसार सागर का सम्यक तारक है |

अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम् |

ज्ञानवैराग्यसिध्यर्थं गुरु पादोदकं पिबेत् ||

    अज्ञान की जड़ को उखाड़ने वाले, अनेक जन्मों के कर्मों को निवारने वाले, ज्ञान और वैराग्य को सिद्ध करने वाले श्री गुरु चरणामृत का पान करना चाहिए |

काशीक्षेत्रं निवासश्च जाह्नवी चरणोदकम् 

गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात तारकं ब्रह्मनिश्चयः ||

    गुरुदेव का निवासस्थान काशीक्षेत्र है | श्री गुरुदेव का चरणामृत गंगाजी है | गुरुदेव भगवान विश्वनाथ और साक्षात तारक ब्रह्म हैं यह निश्चित है |

गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः 

तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्र दत्तमनस्ततम् ||

    गुरुदेव की सेवा ही तीर्थराज गया है | गुरुदेव का शरीर अक्षय वट वृक्ष है | गुरुदेव के श्रीचरण भगवान विष्णु के श्रीचरण हैं | वहाँ लगाया हुआ मन तदाकार हो जाता है |

सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु यत् |

गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन तत्फलम् ||

    सात समुद्र पर्यन्त के सर्व तीर्थों में स्नान करने से जितना फल मिलता है वह फल श्री गुरुदेव के चरणामृत के एक बिन्दु के फल का हजारवाँ हिस्सा हैं |

दृश्यविस्मृतिपर्यन्तं कुर्याद् गुरुपदार्चनम् |

तादृशस्यैव कैवल्यं न च तदव्यतिरेकिणः ||

    जब तक दृश्यप्रपंच की विस्मृति न हो जाय तब तक गुरुदेव के पावन चरणारविन्द की पूजा-अर्चना करनी चाहिए | ऐसा करनेवाले को ही कैवल्यपद की प्राप्ति होती है, इससे विपरीत करने वाले को नहीं होती |

पादुकासनशैय्यादि गुरुणा यदाभिष्टितम् 

नमस्कुर्वीत तत्सर्वं पादाभ्यां न स्पृशेत् क्वचित् |

    पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो कुछ भी गुरुदेव के उपयोग में आते हों उन सबको नमस्कार करना चाहिए और उनको पैर से कभी भी नहीं छूना चाहिए |

विजानन्ति महावाक्यं गुरोश्चरणसेवया |

ये वै सन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः ||

    श्री गुरुदेव के श्रीचरणों की सेवा करके महावाक्य के अर्थ को जो समझते हैं वे ही सच्चे सन्यासी हैं | अन्य तो मात्र वेशधारी हैं |

चार्वाकवैष्णवमते सुखं प्रभाकरे न हि |

गुरोः पादान्तिके यद्वत्सुखं वेदान्तसम्मतम् ||

    गुरुदेव के श्रीचरणों में वेदान्तनिर्दिष्ट सुख है वह सुख न चार्वाक मत है, न वैष्णव मत है और न ही प्रभाकर (सांख्य) मत में है |

गुरुभावः परं तीर्थमन्यतीर्थं निरर्थकम् |

सर्वतीर्थमयं देवि श्रीगुरोश्चराणाम्बुजम् ||

    गुरुभक्ति ही श्रेष्ठ तीर्थ है | अन्य तीर्थ निरर्थक हैं | हे देवी ! श्री गुरुदेव के चरणकमल सर्व तीर्थमय हैं |

सर्वतीर्थवगाहस्य संप्राप्नोति फलं नरः |

गुरोः पादोदकं पीत्वा शेषं शिरसि धारयन् ||

    श्री सदगुरुदेव के चरणामृत का पान करने से और उसे मस्तक पर धारण करने से मनुष्य सर्व तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त करता है |

गुरुपादोदकं पानं गुरोरुच्छिष्ट भोजनम् |

गुरुमूर्ते सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः ||

    गुरुदेव के चरणामृत पान करना, गुरुदेव के भोजन में से बचा हुआ खाना, गुरुदेव  की मूर्ति का ध्यान करना और गुरुनाम का जप करना चाहिए |

यस्य प्रसादहमेव सर्वं मय्येव सर्वं परिकल्पितं च |

इत्थं विजानामि सदात्मरूपं तस्यांघ्रिपदं प्रणोतोस्मि नित्यम् ||

    मैं ही सब हूँ | मुझसे ही सब कल्पित है | ऐसा ज्ञान जिनकी कृपा से हुआ ऐसे आत्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के चरणकमलों में मैं नित्य प्रणाम करता हूँ |

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः |

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः ||

    हे देवी ! कल्प पर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ, यह सब गुरुदेव के संतोष मात्र से सफल हो जाता है |

    ऐसे महिमावान श्री सदगुरुदेव के पावन चरणकमलों का षोड़शोपचार से पूजन करने से साधक-शिष्य का हृदय शीघ्र शुद्ध और उन्नत बन जाता है | मानसपूजा भी इस प्रकार कर सकते हैं |

    मन ही मन भावना करो कि हम गुरुदेव के श्री चरण धो रहे हैं … सर्वतीर्थों के जल से उनके पादारविन्द को स्नान करा रहे हैं | खूब आदर एवं कृतज्ञतापूर्वक उनके श्रीचरणों में दृष्टि रखकर … श्रीचरणों को प्यार करते हुए उनको नहला रहे हैं … उनके तेजोमय ललाट में शुद्ध चन्दन से तिलक कर रहे हैं … अक्षत चढ़ा रहे हैं … अपने हाथों से बनाई हुई गुलाब के सुन्दर फूलों की सुहावनी माला अर्पित करके अपने हाथ पवित्र कर रहे हैं … पाँच कर्मेन्द्रियों की, पाँच ज्ञानेन्द्रियों की एवं ग्यारवें मन की चेष्टाएँ गुरुदेव के श्री चरणों में अर्पित कर रहे हैं …

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैवा बुध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् 

करोमि यद् यद् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि ||

    शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से अथवा प्रकृति के स्वभाव       से जो जो करते करते हैं वह सब समर्पित करते हैं | हमारे जो कुछ कर्म हैं, हे गुरुदेव, वे सब आपके श्री चरणों में समर्पित हैं … हमारा कर्त्तापन का भाव, हमारा भोक्तापन का भाव आपके श्रीचरणों में समर्पित है |

    इस प्रकार ब्रह्मवेत्ता सदगुरु की कृपा को, ज्ञान को, आत्मशान्ति को, हृयद में भरते हुए, उनके अमृत वचनों पर अडिग बनते हुए अन्तर्मुख हो जाओ … आनन्दमय बनते जाओ … ॐ आनंद ! ॐ आनंद ! ॐ आनंद !

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