Sant Shri Asharamji Bapu

Sant Shri Asharamji Bapu is a Self-Realized Saint from India, who preaches the existence of One Supreme Conscious in every human being.

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संत श्री आशारामजी बापू

भारत के संत श्री आशारामजी बापू आत्मज्ञानी संत हैं, जो मानवमात्र मे एक सच्चिदानंद इश्वर के अस्तित्व का उपदेश देते है

जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा

 जय गणेश जय गणेश,

जय गणेश देवा ।

माता जाकी पार्वती,

पिता महादेवा ॥


एक दंत दयावंत

चार भुजा धारी ।

मस्तक सिंदूर सोहे

मूसे की सवारी ॥


दुःखियों के दुःख हरो

दया करो देवा ।

माता जाकी पार्वती,

पिता महादेवा ॥


अंधन को आंख देत,

कोढ़ियन को काया ।

बांझन को पुत्र देत,

निर्धन को माया ॥


दुःखियों के दुःख हरो

दया करो देवा ।

माता जाकी पार्वती,

पिता महादेवा ॥


लडुवन को भोग लगे

संत करें सेवा

संत करें सेवा


जय गणेश जय गणेश,

जय गणेश देवा ।

माता जाकी पार्वती,

पिता महादेवा ॥

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आज गुरू के दर्शन कर लो

 आज गुरू के दर्शन कर लो

खुशियों से झोली को भर लो

गुरू ज्ञान जीवन में भर लो

अपना हित सब साधक कर लो

आज गुरू के दर्शन कर लो...


शबरी मीरा एकलव्य को

गुरुभक्ति ने तारा

आरुणि और ध्रुव को भी था

गुरू का मिला सहारा

ऐसे गुरूवर हमको मिले हैं

सद्गुरू की भक्तों कर लो


शुभ दर्शन गुरूवर के पाकर

मन का हर संताप मिटे

गुरूवाणी सुनने से कितने

जन्मों के हैं पाप कटे

गुरू ही पूरण ब्रह्म हैं भक्तों

गुरूप्रेम ह्रदय में भर लो


गुरू की मूरत अति निर्मल हैं

सबका मन मोह लेती हैं

गुरू चरणों की धूली पावन

बिगड़ी बना ये देती हैं

गुरू ही सारे तीरथ मंदिर

गुरू दर पे तुम सजदा कर लो


मोहमाया के रिश्ते सारे

चार दिनों का मेला हैं

गुरू बिना नहीं कोई साथी

जाना तुझे तो अकेला हैं

गुरूवर का दामन लेकर

भवसागर से तुम तो तर लो

आज गुरू के दर्शन कर लो...

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राम बने कभी कृष्ण बने

 राम बने कभी कृष्ण बने 

कभी साँई आसाराम हैं

पारब्रह्म परमेश्वर तुमको 

बारंबार प्रणाम हैं


अलख निरंजन निराकार

साकार रूप में आया हैं

फैला हैं आलोक दिशाओं में

अमृत सरसाया हैं

धन्य धन्य भारत की धरती

लीला अति अभिराम हैं

पारब्रह्म परमेश्वर तुमको 

बारंबार प्रणाम हैं


हिमगिरि से सागर तक

तेरी ही करुणा की छाया हैं

काम रूप से पंच नदी तक

तुमने रस बरसाया हैं

गूँज रहा धरती के कण कण में

पावन हरि नाम हैं

पारब्रह्म परमेश्वर तुमको 

बारंबार प्रणाम हैं


अमी दृष्टि बरसाकर पल में

लाखों का उद्धार किया

दीन दुःखी कातर अनाथ का

तुमने बेड़ा पार किया

द्वार तुम्हारे जो भी आता

होता पूरणकाम हैं

पारब्रह्म परमेश्वर तुमको 

बारंबार प्रणाम हैं


मनमंदिर पावन कर अपना

तुझको आज बिठाया हैं

दो नयनों के दीप जलाए

श्रद्धा सुमन चढाया हैं

तेरे चरणों में ही गुरूवर

अपने चारों धाम हैं

पारब्रह्म परमेश्वर तुमको 

बारंबार प्रणाम हैं


गुरुदेव हे गुरुदेव

विश्वशांति का विजय पताका 

लहराए ऐसा वर दो

तृषावन्त मानवता के उर में

फिर से अमृत भर दो 

जगन्नियंता तेरे चरणों में

सच्चा विश्राम हैं

पारब्रह्म परमेश्वर तुमको 

बारंबार प्रणाम हैं

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क्या कहूँ कौनसी दौलत हैं गुरू

 क्या कहूँ कौनसी दौलत हैं गुरू

मेरा जीवन मेरी दुनिया मेरी जन्नत हैं गुरू

क्या कहूँ कौन...


बनाया इसीने जीवन सारा

रोम रोम में इनका ही साया

साया ही नहीं काया हैं मेरी

उपकार हैं इनका श्वासों पर

मेरी पूजा मेरी बरकत हैं गुरू

मेरा जीवन मेरी दुनिया मेरी जन्नत हैं गुरू

क्या कहूँ कौनसी दौलत हैं गुरू...


हम सबको एक प्यार से सींचा

कोई न ऊँचा कोई न नीचा

छाया ही भली महिमा ही भरी 

करें प्रेम शमा संग परवाना

जन्मों जन्मों की इबादत हैं गुरू

मेरा जीवन मेरी पूजा मेरी जन्नत हैं गुरू

क्या कहूँ कौनसी दौलत हैं गुरू...


अंक में सारी सृष्टि समेटी

सुख-दुःख को सम कर के देखी

आँचल के तले जीवन ये पले

वो नर क्या वो तो नारायण

सबको शिव करने की ताकत हैं गुरू

मेरा जीवन मेरी दुनिया...


जन्मों जन्मों की इबादत हैं गुरू

मेरा जीवन मेरी पूजा मेरी जन्नत हैं गुरू


मेरी पूजा मेरी बरकत हैं गुरू

मेरा जीवन मेरी दुनिया...


क्या कहूँ कौनसी दौलत हैं गुरू

मेरा जीवन मेरी दुनिया मेरी जन्नत हैं गुरू


सबको शिव करने की ताकत हैं गुरू

मेरा जीवन मेरी दुनिया मेरी जन्नत हैं गुरू

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ब्रह्म रामायण

 

(1)      हो जा अजर ! हो जा अमर !!

जो मोक्ष है तू चाहताविष सम विषय तज तात रे।

आर्जव क्षमा संतोष शम दमपी सुधा दिन रात रे॥

संसार जलती आग हैइस आग से झट भाग कर।

आ शांत शीतल देश मेंहो जा अजर ! हो जा अमर !!॥1॥

 

पृथिवी नहीं जल भी नहींनहीं अग्नि तू नहीं है पवन।

आकाश भी तू है नहींतू नित्य है चैतन्यघन॥

इन पाँचों का साक्षी सदानिर्लेप है तू सर्वपर।

निज रूप को पहिचानकरहो जा अजर ! हो जा अमर!!॥2॥

 

चैतन्य को कर भिन्न तन सेशांति सम्यक् पायेगा।

होगा तुरंत ही तू सुखीसंसार से छुट जायेगा॥

आश्रम तथा वर्णादि काकिञ्चित् न तू अभिमान कर।

सम्बन्ध तज दे देह सेहो जा अजर ! हो जा अमर!!॥3॥

 

नहीं धर्म है न अधर्म तुझमें ! सुख-दुःख भी लेश न।

हैं ये सभी अज्ञान मेंकर्त्तापना भोक्तापना॥

तू एक दृष्टा सर्व काइस दृश्य से है दूरतर।

पहिचान अपने आपकोहो जा अजर ! हो जा अमर !!॥4॥

 

कर्त्तृत्व के अभिमान कालेसर्प से है तू डँसा।

नहीं जानता है आपकोभव पाश में इससे फँसा॥

कर्त्ता न तू तिहुँ काल मेंश्रद्धा सुधा का पान कर।

पीकर उसे हो सुखीहो जा अजर ! हो जा अमर !!॥5॥

मैं शुद्ध हूँ मैं बुद्ध हूँज्ञानाग्नि ऐसी ले जला।

मत पाप मत संताप करअज्ञान वन को दे जला॥

ज्यों सर्प रस्सी माँहिंजिसमें भासता ब्रह्माण्ड भर।

सो बोध सुख तू आप हैहो जा अजर ! हो जा अमर !!॥6॥

 

अभिमान रखता मुक्ति कासो धीर निश्चय मुक्त है।

अभिमान करता बन्ध कासो मूढ़ बन्धनयुक्त है॥

'जैसी मति वैसी गति', लोकोक्ति यह सच मानकर।

भव-बन्ध से निर्मुक्त होहो जा अजर ! हो जा अमर!!॥7॥

 

आत्मा अमल साक्षी अचलविभु पूर्ण शाश्वत् मुक्त है।

चेतन असंगी निःस्पृहीशुचि शांत अच्युत तृप्त है॥

निज रूप के अज्ञान सेजन्मा करे फिर जाय मर।

भोला ! स्वयं को जानकरहो जा अजर ! हो जा अमर !!॥8॥


(2) सुख से विचर !

 

कूटस्थ हूँ अद्वैत हूँमैं बोध हूँ मैं नित्य हूँ।

अक्षय तथा निस्संग आत्माएक शाश्वत् सत्य हूँ॥

नहीं देह हूँ नहीं इन्द्रियाँहूँ स्वच्छ से भी स्वच्छतर।

ऐसी किया कर भावनानिःशोक हो सुख से विचर॥1॥

 

मैं देह हूँ फाँसी महाइस पाप में जकड़ा गया।

चिरकाल तक फिरता रहाजन्मा किया फिर मर गया॥

'मैं बोध हूँज्ञानास्‍त्र लेअज्ञान का दे काट सर।

स्वच्‍छन्द होनिर्द्वन्द्व होआनन्द कर सुख से विचर॥2॥

 

निष्क्रिय सदा निस्संग तूकर्ता नहीं भोक्ता नहीं।

निर्भय निरंजन है अचलआता नहीं जाता नहीं॥

मत राग कर मत द्वेष करचिन्ता रहित हो जा निडर।

आशा किसी की क्यों करेसंतृप्त हो सुख से विचर॥3॥

 

यह विश्व तुझसे व्याप्त हैतू विश्व में भरपूर है।

तू वार है तू पार हैतू पास है तू दूर है॥

उत्तर तू ही दक्षिण तू हीतू है इधर तू है उधर।

दे त्याग मन की क्षुद्रतानिःशंक हो सुख से विचर॥4॥

 

निरपेक्ष दृष्टा सर्व काइस दृश्य से तू अन्य है।

अक्षुब्ध है चिन्मात्र हैसुख-सिन्धु पूर्ण अनन्य है॥

छः ऊर्मियों से है रहितमरता नहीं तू है अमर।

ऐसी किया कर भावनानिर्भय सदा सुख से विचर॥5॥

 

आकार मिथ्या जान सबआकार बिन तू है अचल।

जीवन मरण है कल्पनातू एकरस निर्मल अटल॥

ज्यों जेवरी में सर्प त्योंअध्यस्त तुझमें चर अचर।

ऐसी किया कर भावनानिश्चिन्त हो सुख से विचर॥6॥

 

दर्पण धरे जब सामनेतब ग्राम उसमें भासता।

दर्पण हटा लेते जभीतब ग्राम होता लापता॥

ज्यों ग्राम दर्पण माँहि तुझमेंविश्व त्यों आता नजर।

संसार को मत देखनिज को देख तू सुख से विचर॥7॥

 

आकाश घट के बाह्य हैआकाश घट भीतर बसा।

सब विश्व में है पूर्ण तू हीबाह्य भीतर एक सा॥

श्रृति संत गुरु के वाक्य येसच मान रे विश्वास कर।

भोला ! निकल जग-जाल सेनिर्बन्ध हो सुख से विचर॥8॥

(3) आश्चर्य है ! आश्चर्य है !!

 

छूता नहीं मैं देह फिर भीदेह तीनों धारता।

रचना करूँ मैं विश्व कीनहीं विश्व से कुछ वासता॥

कर्त्तार हूँ मैं सर्व कायह सर्व मेरा कार्य है।

फिर भी न मुझमें सर्व हैआश्चर्य है ! आश्चर्य है !! ॥1॥

 

नहीं ज्ञान ज्ञाता ज्ञेय में सेएक भी है वास्तविक।

मैं एक केवल सत्य हूँज्ञानादि तीनों काल्पनिक॥

अज्ञान से जिस माँहिं भासेज्ञान ज्ञाता ज्ञेय हैं।

सो मैं निरंजन देव हूँआश्चर्य है ! आश्चर्य  है !! ॥2॥

 

है दुःख सारा द्वैत मेंकोई नहीं उसकी दवा।

यह दृश्य सारा है मृषाफिर द्वैत कैसा वाह वा !!॥

चिन्मात्र हूँ मैं एकरसमम कल्पना यह दृश्य है।

मैं कल्पना से बाह्य हूँआश्चर्य है ! आश्चर्य है !! ॥3॥

 

नहीं बन्ध है नहीं मोक्ष हैमुझमें न किंचित् भ्रान्ति है।

माया नहीं काया नहींपरिपूर्ण अक्षय शांति है॥

मम कल्पना है शिष्यमेरी कल्पना आचार्य है।

साक्षी स्वयं हूँ सिद्ध मैंआश्चर्य है ! आश्चर्य है !!॥4॥

 

सशरीर सारे विश्व कीकिंचित् नहीं सम्भावना।

शुद्धात्म मुझ चिन्मात्र मेंबनती नहीं है कल्पना॥

तिहूँकाल तीनों लोकचौदह भुवन माया-कार्य है।

चिन्मात्र मैं निस्संग हूँआश्चर्य है ! आश्चर्य है !!॥5॥

 

रहता जनों में द्वैत काफिर भी न मुझमें नाम है।

दंगल मुझे जंगल जँचेफिर प्रीति का क्या काम है॥

'मैं देह हूँजो मानतासो प्रीति करि दुःख पाय है।

चिन्मात्र में भी संग होआश्चर्य है ! आश्चर्य !!॥6॥

 

नहीं देह मैं नहीं जीव मैंचैतन्यघन मैं शुद्ध हूँ।

बन्धन यही मुझ माँहिं थाथी चाह मैं जीता रहूँ॥

ब्रह्माण्डरूपी लहरियाँउठ-उठ बिला फिर जाय हैं।

परिपूर्ण मुझ सुखसिंधु में आश्चर्य है ! आश्चर्य !!॥7॥

 

निस्संग मुझ चित्सिन्धु मेंजब मन पवन हो जाय लय।

व्यापार लय हो जीव काजग नाव भी होवे विलय॥

इस भाँति से करके मनननर प्राज्ञ चुप हो जाय है।

भोला ! न अब तक चुप हुआआश्चर्य है ! आश्चर्य है !!॥8॥

(4) प्राज्ञ-वाणी

 

मैं हूँ निरंजन शांत निर्मलबोध माया से परे।

हूँ काल का भी काल मैंमन-बुद्धि-काया से परे॥

मैं तत्त्व अपना भूलकरव्यामोह में था पड़ गया।

श्रृति संत गुरु ईश्वर-कृपासब मुक्त बन्धन से भया॥1॥

 

जैसे प्रकाशूँ देह मैंत्यों ही प्रकाशूँ विश्व सब।

हूँ इसलिए मैं विश्व सबअथवा नहीं हूँ विश्व अब॥

सशरीर सारे विश्व का हैत्याग मैंने कर दिया।

सब ठोर मैं ही दीखता हूँब्रह्म केवल नित नया॥2॥

 

जैसे तरंगे तार बुदबुदसिन्धु से नहीं भिन्न कुछ।

मुझ आत्म से उत्पन्न जगमुझमें नहीं है अन्य कुछ॥

ज्यों तन्तुओं से भिन्न पट कीहै नहीं सत्ता कहीं।

मुझ आत्म से इस विश्व कीत्यों भिन्न सत्ता है नहीं॥3॥

 

ज्यों ईख के रस माँहिं शक्करव्याप्त होकर पूर्ण है।

आनन्दघन मुझ आत्म सेसब विश्व त्यों परिपूर्ण है॥

अज्ञान से ज्यों रज्जु अहि होज्ञान से हट जाय है।

अज्ञान निज से जग बनानिज ज्ञान से मिट जाय है॥4॥

 

जब है प्रकाशक तत्त्व मम तोक्यों न होऊँ प्रकाश मैं।

जब विश्व भर को भासतातो आप ही हूँ भास मैं॥

ज्यों सीप में चाँदी मृषामरुभूमि में पानी यथा।

अज्ञान से कल्पा हुआयह विश्व मुझमें है तथा॥5॥

 

ज्यों मृत्तिका से घट बनेफिर मृत्तिका में होय लय।

उठती यथा जल से तरंगेहोय फिर जल में विलय॥

कंकण कटक बनते कनक सेलय कनक में हो यथा।

मुझसे निकलकर विश्व यहमुझ माँहिं लय होता तथा॥6॥

 

होवे प्रलय इस विश्व कामुझको न कुछ भी त्रास है।

ब्रह्मादि सबका नाश होमेरा न होता नाश है॥

मैं सत्य हूँ मैं ज्ञान हूँमैं ब्रह्मदेव अनन्त हूँ।

कैसे भला हो भय मुझेनिर्भय सदा निश्चिंत हूँ॥7॥

 

आश्चर्य है आश्चर्य हैमैं देह वाला हूँ यदपि।

आता न जाता हूँ कहींभूमा अचल हूँ मैं तदपि॥

सुन प्राज्ञ वाणी चित्त देनिजरूप में अब जाग जा।

भोला ! प्रमादी मत बनेभवजेल से उठ भाग जा॥8॥

(5) कैसे भला फिर दीन हो ?

 

ज्यों सीप की चाँदी लुभातीसीप के जाने बिना।

त्यों ही विषय सुखकर लगे हैंआत्म पहचाने बिना॥

अज अमर आत्मा जानकरजो आत्म में तल्लीन हो।

सब रस विरस लगते उसेकैसे भला फिर दीन हो ?॥1॥

 

सुन्दर परम आनन्दघननिज आत्म को नहीं जानता।

आसक्त होकर भोग मेंसो मूढ हो सुख मानता॥

ज्यों सिंधु में से लहर जिसमेंविश्व उपजे लीन हो।

'मैं हूँ वहीजो मानताकैसे भला फिर दीन हो ? ॥2

 

सब प्राणियों में आपकोसब प्राणियों को आप में।

जो प्रज्ञा मुनि है जानताकैसे फँसे फिर पाप में॥

अक्षय सुधा के पान मेंजिस संत का मन लीन हो।

क्यों कामवश सो हो विकलकैसे भला फिर दीन हो ? ॥3॥

 

है काम वैरी ज्ञान काबलवान के बल को हरे ।

नर धीर ऐसा जानकरक्यों भोग की इच्छा करे ?

जो आज है कल ना रहेप्रत्येक क्षण ही क्षीण हो ।

ऐसे विनश्वर भोग मेंकैसे भला फिर दीन हो ? ॥4॥

 

तत्त्वज्ञ विषय न भोगताना खेद मन में मानता।

निज आत्म केवल देखतासुख दुःख सम है जानता॥

करता हुआ भी नहीं करेसशरीर भी तनहीन हो।

निंदा-प्रशंसा सम जिसेकैसे भला फिर दीन हो ? ॥5॥

 

सब विश्व मायामात्र हैऐसा जिसे विश्वास है।

सो मृत्यु सम्मुख देखकरलाता न मन में त्रास है॥

नहीं आस जीने की जिसेऔर त्रास मरने की न हो।

हो तृप्त अपने आपमेंकैसे भला फिर दीन हो ? ॥6॥

 

नहीं ग्राह्य कुछ नहीं त्याज्य कुछअच्छा बुरा नहीं है कहीं।

यह विश्व है सब कल्पनाबनता बिगड़ता कुछ नहीं ॥

ऐसा जिसे निश्चय हुआक्यों अन्य के स्वाधीन हो ?

सन्तुष्ट नर निर्द्वन्द्व सोकैसे भला फिर दीन हो ? ॥7॥

 

श्रुति संत सब ही कर रहेब्रह्मादि गुरु सिखला रहे।

श्रीकृष्ण भी बतला रहेशुक आदि मुनि दिखला रहे॥

सुख सिन्धु अपने पास हैसुख सिन्धु जल की मीन हो।

भोला ! लगा डुबकी सदामत हो दुःखी मत दीन हो ॥8॥

(6)  सब हानि-लाभ समान है

 

संसार कल्पित मानतानहीं भोग में अनुरागता।

सम्पत्ति पा नहीं हर्षताआपत्ति से नहीं भागता॥

निज आत्म में संतृप्त हैनहीं देह का अभिमान है।

ऐसे विवेकी के लिएसब हानि-लाभ समान है॥1॥

 

संसारवाही बैल समदिन रात बोझा ढोय है।

त्यागी तमाशा देखतासुख से जगे है सोय है॥

समचित्त है स्थिर बुद्धिकेवल आत्म-अनुसन्धान है।

तत्त्वज्ञ ऐसे धीर कोसब हानि-लाभ समान है॥2॥

 

इन्द्रादि जिस पद के लिएकरते सदा ही चाहना।

उस आत्मपद को पाय केयोगी हुआ निर्वासना॥

है शोक कारण रोग कारणराग का अज्ञान है।

अज्ञान जब जाता रहासब हानि-लाभ समान है॥3॥

 

आकाश से ज्यों धूम कासम्बन्ध होता है नहीं।

त्यों पुण्य अथवा पाप कोतत्त्वज्ञ छूता है नहीं॥

आकाश सम निर्लेप जोचैतन्यघन प्रज्ञान है।

ऐसे असंगी प्राज्ञ कोसब हानि-लाभ समान है॥4॥

 

यह विश्व सब है आत्म हीइस भाँति से जो जानता।

यश वेद उसका गा रहेप्रारब्धवश वह बर्तता॥

ऐसे विवेकी संत कोन निषेध है न विधान है।

सुख दुःख दोनों एक सेसब हानि-लाभ समान है॥5॥

 

सुर नर असुर पशु आदि जितनेजीव हैं संसार में।

इच्छा अनिच्छा वश हुएसब लिप्त है व्यवहार में॥

इच्छा अनिच्छा से छुटाबस एक संत सुजान है।

उस संत निर्मल चित्त कोसब हानि-लाभ समान है॥6॥

 

विश्वेश अद्वय आत्म कोविरला जगत में जानता।

जगदीश को जो जानतानहीं भय किसी से मानता॥

ब्रह्माण्ड भर को प्यार करताविश्व जिसका प्राण है।

उस विश्व-प्यारे के लिएसब हानि-लाभ समान है॥7॥

 

कोई न उसका शत्रु हैकोई न उसका मित्र है।

कल्याण सबका चाहता हैसर्व का सन्मित्र है॥

सब देश उसको एक सेबस्ती भले सुनसान है।

भोला ! उसे फिर भय कहाँसब हानि-लाभ समान है॥8॥

 (7)  पुतली नहीं तू मांस की

 

जहाँ विश्व लय हो जाय तहँभ्रम भेद सब बह जाय है।

अद्वय स्वयं ही सिद्ध केवलएक ही रह जाय है॥

सो ब्रह्म है तू है वहीपुतली नहीं तू मांस की।

नहीं वीर्य तू नहीं रक्त तूनहीं धौंकनी तू साँस की॥1॥

 

जहाँ हो अहन्ता लीन तहँरहता नहीं जीवत्व है।

अक्षय निरामय शुद्ध संवित्शेष रहता तत्त्व है॥

सो ब्रह्म है तू है वहीपुतली नहीं तू मांस की।

नहीं जन्म तुझमें नहीं मरणनहीं पोल है आकाश की॥2॥

 

दिक्काल जहँ नहीं भासतेहोता जहाँ नहीं शून्य है।

सच्चित् तथा आनन्द आत्माभासता परिपूर्ण है॥

सो ब्रह्म है तू है वहीपुतली नहीं तू मांस की।

नहीं त्याग तुझमें नहीं ग्रहणनहीं गाँठ है अभ्यास की॥3॥

 

चेष्टा नहीं जड़ता नहींनहीं आवरण नहीं तम जहाँ।

अव्यय अखंडित ज्योति शाश्वत्जगमगाती सम जहाँ॥

सो ब्रह्म है तू है वहीपुतली नहीं तू मांस की।

कैसे तुझे फिर बन्ध होनहीं मूर्ति तू आभास की॥4॥

 

जो सूक्ष्म से भी सूक्ष्म हैनहीं व्योम पंचक है जहाँ।

परसे पर ध्रुव शांत शिव हीनित्य भासे है वहाँ॥

सो ब्रह्म है तू है वहीपुतली नहीं तू मांस की।

गुण तीन से तू है परेचिन्ता तुझे क्या नाश की॥5॥

 

जो ज्योतियों की ज्योति हैसबसे प्रथम जो भासता।

अक्षर सनातन दिव्य दीपकसर्व विश्व प्रकाशता॥

सो ब्रह्म है तू है वहीपुतली नहीं तू मांस की।

तुझको प्रकाशे कौन तू हैदिव्य मूर्ति प्रकाश की॥6॥

 

शंका जहाँ उठती नहींकिंचित् जहाँ न विकार है।

आनन्द अक्षय से भरानित ही नया भण्डार है॥

सो ब्रह्म है तू है वहीपुतली नहीं तू मांस की।

फिर शोक तुझमें है कहाँतू है अवधि संन्यास की॥7॥

 

जिस तत्त्व को कर प्राप्त परदामोह का फट जाय है।

जल जाय हैं सब कर्मचिज्जड़-ग्रन्थि जड़ कट जाय है॥

सो ब्रह्म है तू है वहीपुतली नहीं तू मांस की।

भोला ! स्वयं हो तृप्ति सुतलीकाट दे भवपाश की॥8॥

(8)  सर्वात्म अनुसन्धान कर

 

मायारचित यह देह हैमायारचित ही गेह है।

आसक्ति फाँसी है कड़ीमजबूत रस्सी स्नेह है॥

भव भेद में है सर्वदामत भेद पर तू ध्यान धर।

सर्वत्र आत्मा देख तूसर्वात्म अनुसंधान कर॥1॥

 

माया महा है मोहनीबन्धन अमंगल कारिणी।

व्यामोहकारिणी शोकदाआनन्द मंगल कारिणी॥

माया मरी को मार देमत देह में अभिमान कर।

दे भेद मन से मेट सबसर्वात्म-अनुसंधान कर॥2॥

 

जो ब्रह्म सबमें देखते हैंध्यान धरते ब्रह्म का।

भव जाल से हैं छूटतेसाक्षात करे हैं ब्रह्म का॥

नर मूढ़ पाता क्लेश हैअपना-पराया मानकर।

ममता-अहंता त्याग देसर्वात्म-अनुसंधान कर॥3॥

 

वैरी भयंकर है विषयकीड़ा न बन तू भोग का।

चंचलता मन का मिटाअभ्यास करके योग का॥

यह चित्त होता मुक्त है, 'सब ब्रह्म हैयह जानकर।

कर दर्श सबमें ब्रह्म कासर्वात्म-अनुसंधान कर॥4॥

 

जब नाश होता चित्त कायोगी महा फल पाय है।

जो पूर्ण शशि है शोभतासब विश्व में भर जाय है॥

चिन्मात्र संवित् शुद्ध जल मेंनित्य ही तू स्नान कर।

मन मैल सारा डाल धोसर्वात्म-अनुसंधान कर॥5॥

 

जो दीखता होता स्मरणजो कुछ श्रवण में आये है।

मिथ्या नदी मरुभूमि की हैमूढ़ धोखा खाये हैं॥

धोखा न खा सुखपूर्ण आत्मा-सिन्धु का जलपान कर।

प्यासा न मर पीयूष पीसर्वात्म-अनुसंधान कर॥6॥

 

ममतारहित निर्द्वन्द्व होभ्रम-भेद सारे दे हटा।

मत राग कर मत द्वेष करसब दोष मन के दे मिटा॥

निर्मूल कर दे वासनानिज आत्म का कल्याण कर।

भाण्डा दुई का फोड़ देसर्वात्म-अनुसंधान कर॥7॥

 

देहात्म होती बुद्धि जबधन मित्र सुत हो जाय हैं।

ब्रह्मात्म होती दृष्टि जबधन आदि सब खो जाय हैं॥

मल-मूत्र के भण्डार नश्वरदेह को पहचान कर।

भोला ! प्रमादी मत बनेसर्वात्म-अनुसंधान कर॥8॥

(9) बसआपमें लवलीन हो

 

तू शुद्ध है तेरा किसी सेलेश भी नहीं संग है।

क्या त्यागना तू चाहता चिन्मात्र तू निस्संग है॥

निस्संग निज को जान लेमत हो दुःखी मत दीन हो।

इस देह से तज संग देबस आपमें लवलीन हो॥1॥

 

जैसे तरंगे बुलबुलेझागादि बनते सिन्धु से।

त्यों ही चराचर विश्व बनताएक तुझ चित्सिन्धु से॥

तू सिन्धु सम है एक-सानहीं जीर्ण हो न नवीन हो।

अपना पराया भेद तजबस आपमें लवलीन हो॥2॥

 

अपरोक्ष यद्यपि दीखतानहीं वस्तुतः संसार है।

तुझ शुद्ध निर्मल तत्त्व मेंसम्भव न कुछ व्यापार है॥

ज्यों सर्प रस्सी का बनाफिर रज्जु में ही लीन हो।

सब विश्व लय कर आपमेंबस आपमें लवलीन हो॥3॥

 

सुख-दुःख दोनों जान समआशा-निराशा एक सी।

जीवन-मरण भी एक-सानिंदा-प्रशंसा एक-सी॥

हर हाल में खुशहाल रहनिर्द्वन्द्व चिन्ताहीन हो।

मत ध्यान कर तू अन्य काबस आपमें लवलीन हो॥4॥

 

भूमा अचल शाश्वत् अमलसम ठोस है तू सर्वदा।

यह देह है पोला घड़ाबनता बिगड़ता है सदा॥

निर्लेप रह जल विश्व मेंमत विश्व जल की मीन हो।

अनुरक्त मत हो देह मेंबस आपमें लवलीन हो॥5॥

 

यह विश्व लहरों के सदृशतू सिन्धु ज्यों गम्भीर है।

बनते बिगड़ते विश्व हैंतू निश्चल ही रहे॥

मत विश्व से सम्बन्ध रखमत भोग के आधीन हो।

नित आत्म-अनुसंधान करबस आपमें लवलीन हो॥6॥

 

तू सीप सच्ची वस्तु हैयह विश्व चाँदी है मृषा।

तू वस्तु सच्ची रज्जु हैयह विश्व आहिनी है मृषा॥

इसमें नहीं संदेह कुछप्यारे ! न श्रद्धाहीन हो।

विश्वास कर विश्वास करबस आपमें लवलीन हो॥7॥

 

सब भूत तेरे माँही हैंतू सर्व भूतों माँही है।

तू सूत्र सबमें पूर्ण हैतेरे सिवा कुछ नांही है॥

यदि हो न सत्ता एक तोफिर चर अचर कुछ भी न हो।

भोला ! यही सिद्धान्त हैबस आपमें लवलीन हो॥8॥

(10) छोड़ूँ किसे पकड़ूँ किसे ?

 

अक्षुब्ध मुझ अम्बोधि मेंये विश्व नावें चल रहीं।

मन वायु की प्रेरी हुईमुझ सिन्धु में हलचल नहीं॥

मन वायु से मैं हूँ  परेहिलता नहीं मन वायु से।

कूटस्थ ध्रुव अक्षोभ हैछोड़ूँ किसे पकड़ूँ किसे?॥1॥

 

निस्सीम मुझ सुख-सिन्धु मेंजग-वीचियाँ उठती रहें।

बढ़ती रहें घटती रहेंबनती रहें मिटती रहें॥

अव्ययरहित उत्पत्ति से हूँवृद्धि से अरु अस्त से।

निश्चल सदा ही एक-साछोड़ूँ किसे पकड़ूँ किसे ?॥2॥

 

अध्यक्ष हूँ मैं विश्व कायह विश्व मुझमें कल्पना।

कल्पे हुए से सत्य कोहोती कभी कुछ हानि ना॥

अति शांति बिन आकार हूँपर रूप से पर नाम से।

अद्वय अनामय तत्त्व मैंछोड़ूँ किसे पकड़ूँ किसे?॥3॥

 

देहादि नहीं है आत्म मेंनहीं आत्म है देहादि में।

आत्म निरंजन एक-सा हैअंत में क्या आदि में॥

निस्संग अच्युत निःस्पृहीअति दूर सर्वोपाधि से।

सो आत्म अपना आप हैछोड़ूँ किसे पकड़ूँ किसे ?॥4॥

 

चिन्मात्र मैं ही सत्य हूँयह विश्व वंध्यापुत्र है।

नहीं बाँझ सुत जनती कभीसब विश्व कहने मात्र है॥

जब विश्व कुछ है ही नहींसम्बन्ध क्या फिर विश्व से।

सम्बन्ध ही जब है नहींछोडूँ किसे पकड़ूँ किसे ?॥5॥

 

नहीं देह में नहीं इन्द्रियाँमन भी नहीं नहीं प्राण हूँ।

नहीं चित्त हूँ नहीं बुद्धि हूँनहीं जीव नहीं विज्ञान हूँ॥

कर्त्ता नहीं भोक्ता नहींनिर्मुक्त हूँ मैं कर्म से।

निरूपाधि संवित् शुद्ध हूँछोड़ूँ किसे पकड़ूँ किसे ?॥6॥

 

है देह मुझमें दीखतापर देह मुझमें है नहीं।

दृष्टा कभी नहीं दृश्य सेपरमार्थ से मिलता कहीं॥

नहीं त्याज्य हूँ नहीं ग्राह्य हूँपर हूँ ग्रहण से त्याग से।

अक्षर परम आनन्दघनछोड़ूँ किसे पकड़ूँ किसे ?॥7॥

 

अज्ञान में रहते सभीकर्त्तापना भोक्तापना।

चिद्रूप मुझमें लेश भीसम्भव नहीं है कल्पना॥

यों स्वात्म-अनुसंधान करछुटे चतुर भवबन्ध से।

भोला ! न अब संकोच करछोड़ूँ किसे पकड़ूँ किसे ?॥8॥

(11)  बन्धन यही कहलाय है ?

 

मैं तू नहीं पहचाननाविषयी विषय नहीं जानना।

आत्मा अनात्मा माननानिज अन्य नहीं पहिचानना॥

चेतन अचेतन जाननाअति पाप माना जाय है।

सन्ताप यह भी देह हैबन्धन यही कहलाये है॥1॥

 

क्या ईश हैक्या जीव हैयह विश्व कैसे बन गया?

पावन परम निस्संग आत्मासंग में क्यों सन गया?

सुख-सिन्धु आत्मा एकरससो दुःख कैसे पाय है?

कारण न इसका जाननाबन्धन यही कहलाय है॥2॥

 

इस देह को 'मैंमाननाया इन्द्रियाँ 'मैंजानना।

अभिमान करना चित्त मेंया बुद्धि 'मैंपहचानना॥

देहादि के अभिमान सेनर मूढ़ दुःख उठाये हैं।

बहु योनियों में जन्मताबन्धन यही कहलाये हैं॥3॥

 

बड़ी कठिन है कामनाआसक्ति दृढ़तम जाल है।

ममता भयंकर राक्षसीसंकल्प काल ब्याल है॥

इन शत्रुओं के वश हुआजन्मे-मरे पछताये है।

सुख से कभी सोता नहींबन्धन यही कहलाये है॥4॥

 

यह है भला यह है बुरायह पुण्य है यह पाप है।

यह लाभ है यह हानि हैयह शीत है यह ताप है॥

यह ग्राह्य है यह त्याज्य हैयह आय है यह जाय है।

इस भाँति मन की कल्पनाबन्धन यही कहलाये है॥5॥

 

श्रोत्रादि को 'मैंमान नरशब्दादि में फँस जाय है।

अनुकूल में सुख मानताप्रतिकूल से दुःख पाये हैं॥

पाकर विषय है हर्षतानहीं पाय तब घबराये है।

आसक्त होना भोग मेंबन्धन यही कहलाये है॥6॥

 

सत्संग में जाता नहींनहीं वेद आज्ञा मानता।

सुनता न हित उपदेशअपनी तान उलटी तानता॥

शिष्टाचरण करता नहींदुष्टाचरण ही भाये है।

कहते इसे हैं मूढ़ताबन्धन यही कहलाये है॥7॥

 

यह चित्त जब तक चाहताया विश्व में है दौड़ता।

करता किसी को है ग्रहणअथवा किसी को छोड़ता॥

सुख पाय के है हर्षतादुःख देखकर सकुचाये है।

भोला ! न तब तक मोक्ष होबन्धन यही कहलाये है॥8॥

(12)  इच्छा बिना ही मुक्त है

 

ममता नहीं सुत दार मेंनहीं देह में अभिमान है।

निन्दा प्रशंसा एक-सीसम मान अरु अपमान है॥

जो भोग आते भोगताहोता न विषयासक्त है।

निर्वासना निर्द्वन्द्व सोइच्छा बिना ही मुक्त है॥1॥

 

सब विश्व अपना जानताया कुछ न अपना मानता।

क्या मित्र हो क्या शत्रुसबको एक सम सम्मानता है॥

सब विश्व का है भक्त जोसब विश्व जिसका भक्त है।

निर्हेतु सबका सुहृद सोइच्छा बिना ही मुक्त है॥2॥

 

रहता सभी के संग परकरता न किंचित संग है।

है रंग पक्के में रँगाचढ़ता न कच्चा रंग है॥

है आपमें संलग्नअपने आप में अनुरक्त है।

है आपमें संतुष्ट सोइच्छा बिना ही मुक्त है॥3॥

 

सुन्दर कथायें जानतादेता घने दृष्टान्त है।

देता दिखाई भ्रांत-साभीतर परम ही शांत है॥

नहीं राग है नहीं द्वेष हैसब दोष है निर्मुक्त है।

करता सभी को प्यार सोइच्छा बिना ही मुक्त है॥4॥

 

नहीं दुःख से घबराय हैसुख की जिसे नहीं चाह है।

सन्मार्ग में विचरे सदाचलता न खोटी राह है॥

पावन परम अन्तःकरणगम्भीर धीर विरक्त है।

शम दम क्षमा से युक्त होइच्छा बिना ही मुक्त है॥5॥

 

जीवन जिसे रुचता नहींनहीं मृत्यु से घबराय है।

जीवन मरण है कल्पनाअपना न कुछ भी जाय है॥

अक्षय अजर शाश्वत अमरनिज आत्म में संतृप्त है।

ऐसा विवेकी प्राज्ञ नरइच्छा बिना ही मुक्त है॥6॥

 

माया नहीं काया नहींवन्ध्या रचा यह विश्व है।

नहीं नाम ही नहीं रूप हीकेवल निरामय तत्त्व है॥

यह ईश है यह जीव मायामाँही सब संक्लृप्त है।

ऐसा जिसे निश्चय हुआइच्छा बिना ही मुक्त है॥7॥

 

कर्तव्य था सो कर लियाकरना न कुछ भी शेष है।

था प्राप्त करना पा लियापाना न अब कुछ लेश है॥

जो जानता था जानकरस्व-स्वरूप में संयुक्त है।

भोला ! नहीं संदेह सोइच्छा बिना ही मुक्त है॥8॥

(13)  ममता अहंता छोड़ दे

पूरे जगत के कार्य कोईभी कभी नहीं कर सका।

शीतोष्ण से सुख-दुःख सेकोई भला क्या तर सका?

निस्संग हो निश्चिन्त होनाता सभी से तोड़ दे।

करता भले रह देह सेममता अहंता छोड़ दे॥1॥

 

संसारियों की दुर्दशा कोदेख मन में शांत हो।

मत आश का हो दास तूमत भोगसुख में भ्रांत हो॥

निज आत्म सच्चा जानकरभाण्डा जगत का फोड़ दे।

अपना पराया मान मतममता अहंता छोड़ दे॥2॥

 

नश्वर अशुचि यह देहतीनों ताप से संयुक्त हो।

आसक्त हड्डी मांस परहोना तुझे नहीं युक्त हो॥

पावन परम निज आत्म मेंमन वृत्ति अपनी जोड़ दे।

संतोष समता कर ग्रहणममता अहंता छोड़ दे॥3॥

 

है काल ऐसा कौन-साजिसमें न कोई द्वन्द्व है।

बचपन तरुणपन वृद्धपनकोई नहीं निर्द्वन्द्व है॥

कर पीठे पीछे द्वन्द्व सबमुख आत्म की दिशि मोड़ दे।

कैवल्य निश्चय पायेगाममता अहंता छोड़ दे॥4॥

 

योगी महर्षि साधुओं कीहैं  घनी पगडण्डियाँ।

कोई सिखाते सिद्धियाँकोई बताते रिद्धियाँ॥

ऊँचा न चढ़ नीचा न गिरतज धूप दे तज दौड़ दे।

सम शांत हो जा एकरसममता अहंता छोड़ दे॥5॥

 

सुखरूप सच्चित् ब्रह्म कोजो आत्म अपना जानता।

इन्द्रादि सुर के भोग सारेही मृषा है मानता॥

दस सौ हजारों शून्य मिथ्याछोड़ लाख करोड़ दे।

एक आत्म सच्चा ले पकड़ममता अहंता छोड़ दे॥6॥

 

गुण तीन पाँचों भूत कायह विश्व सब विस्तार है।

गुण भूत जड़ निस्सार सबतू एक दृष्टा सार है॥

चैतन्य की कर होड़ प्यारे ! त्याग जड़ की होड़ दे।

तू शुद्ध है तू बुद्ध हैममता अहंता छोड़ दे॥7॥

 

शुभ होय अथवा हो अशुभसब वासनाएँ छाँट दे।

निर्मूल करके वासनाअध्यास की जड़ काट दे॥

अध्यास खुजली कोढ़ हैकोढ़ी न बन तज कोढ़ दे।

सुख शांति भोला ! ले पकड़ममता अहंता छोड़ दे॥8॥