पादुका पंचक स्तोत्र

 श्री गुरु पादुका पंचकम्


ॐ नमो गुरुभ्यो गुरुपादुकाभ्यों |

नमः परेभ्यः परपादुकाभ्यः ||

आचार्य सिध्देश्वर पादुकाभ्यों

नमोस्तु लक्ष्मीपति पादुकाभ्यः ||1||

 कामादि सर्प व्रजगारुडाभ्यां |

विवेक वैराग्य निधि प्रदाभ्यां ||

बोध प्रदाभ्यां द्रुत मोक्षदाभ्यां |

नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||2||

अनंत संसार समुद्रतार,

नौकायिताभ्यां स्थिर भक्तिदाभ्यां |

जाक्याब्धि संशोषण बाड़याभ्यां,

नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||3||

ऊँकार ह्रींकार रहस्ययुक्त

श्रींकार गुढ़ार्थ महाविभुत्या |

ऊँकार मर्मं प्रतिपादिनीभ्यां

नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||4||

होत्राग्नि, हौत्राग्नि हविष्य होत

होमादि सर्वकृति भासमानम् |

यद ब्रह्म तद वो धवितारिणीभ्यां,

नमो नमः श्री गुरु पादुकाभ्यां ||5||

गुरु स्तवन

गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः |

गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ||

ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति पूजामूलं गुरोः पदम् |

मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ||

अखंडमंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् |

तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः ||

त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव |

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव ||

ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं 

द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम् ||

एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् |

भावातीतं त्रिगुणरहितं सदगुरुं तं नमामि |

श्री सदगुरुदेव के चरणकमलों का महात्म्य

सर्वश्रुतिशिरोरत्नविराजितपदांबुजम् |

वेदान्तार्थप्रवक्तारं तस्मात्संपूजयेद् गुरुम् ||

    गुरु सेवा श्रुतिरूप श्रेष्ठ रत्नों से सुशोभित चरणकमलों वाले हैं और वेदान्त के अर्थों के प्रवक्ता हैं | इसलिए श्री गुरुदेव की पूजा करनी चाहिए |

देही ब्रह्म भवेद्यस्मात् त्वत्कृपार्थं वदामि तत् |

सर्वपापविशुद्धात्मा श्रीगुरोः पाद्सेवनात् ||

    जिस गुरुदेव के पादसेवन से मनुष्य सर्व पापों से विशुद्धात्मा होकर ब्रह्मरूप हो जाता है वह तुम पर कृपा करने के लिये कहता हूँ |

शोषणं पापपंकस्य दीपनं ज्ञानतेजसः |

गुरोः पादोदकं समयक् संसारार्णवतारकम् ||

    श्री गुरुदेव का चरणामृत पापरूपी कीचड़ का सम्यक् शोषक है, ज्ञानतेज का सम्यक उद्यीपक है और संसार सागर का सम्यक तारक है |

अज्ञानमूलहरणं जन्मकर्मनिवारकम् |

ज्ञानवैराग्यसिध्यर्थं गुरु पादोदकं पिबेत् ||

    अज्ञान की जड़ को उखाड़ने वाले, अनेक जन्मों के कर्मों को निवारने वाले, ज्ञान और वैराग्य को सिद्ध करने वाले श्री गुरु चरणामृत का पान करना चाहिए |

काशीक्षेत्रं निवासश्च जाह्नवी चरणोदकम् 

गुरुर्विश्वेश्वरः साक्षात तारकं ब्रह्मनिश्चयः ||

    गुरुदेव का निवासस्थान काशीक्षेत्र है | श्री गुरुदेव का चरणामृत गंगाजी है | गुरुदेव भगवान विश्वनाथ और साक्षात तारक ब्रह्म हैं यह निश्चित है |

गुरुसेवा गया प्रोक्ता देहः स्यादक्षयो वटः 

तत्पादं विष्णुपादं स्यात् तत्र दत्तमनस्ततम् ||

    गुरुदेव की सेवा ही तीर्थराज गया है | गुरुदेव का शरीर अक्षय वट वृक्ष है | गुरुदेव के श्रीचरण भगवान विष्णु के श्रीचरण हैं | वहाँ लगाया हुआ मन तदाकार हो जाता है |

सप्तसागरपर्यन्तं तीर्थस्नानफलं तु यत् |

गुरुपादपयोबिन्दोः सहस्रांशेन तत्फलम् ||

    सात समुद्र पर्यन्त के सर्व तीर्थों में स्नान करने से जितना फल मिलता है वह फल श्री गुरुदेव के चरणामृत के एक बिन्दु के फल का हजारवाँ हिस्सा हैं |

दृश्यविस्मृतिपर्यन्तं कुर्याद् गुरुपदार्चनम् |

तादृशस्यैव कैवल्यं न च तदव्यतिरेकिणः ||

    जब तक दृश्यप्रपंच की विस्मृति न हो जाय तब तक गुरुदेव के पावन चरणारविन्द की पूजा-अर्चना करनी चाहिए | ऐसा करनेवाले को ही कैवल्यपद की प्राप्ति होती है, इससे विपरीत करने वाले को नहीं होती |

पादुकासनशैय्यादि गुरुणा यदाभिष्टितम् 

नमस्कुर्वीत तत्सर्वं पादाभ्यां न स्पृशेत् क्वचित् |

    पादुका, आसन, बिस्तर आदि जो कुछ भी गुरुदेव के उपयोग में आते हों उन सबको नमस्कार करना चाहिए और उनको पैर से कभी भी नहीं छूना चाहिए |

विजानन्ति महावाक्यं गुरोश्चरणसेवया |

ये वै सन्यासिनः प्रोक्ता इतरे वेषधारिणः ||

    श्री गुरुदेव के श्रीचरणों की सेवा करके महावाक्य के अर्थ को जो समझते हैं वे ही सच्चे सन्यासी हैं | अन्य तो मात्र वेशधारी हैं |

चार्वाकवैष्णवमते सुखं प्रभाकरे न हि |

गुरोः पादान्तिके यद्वत्सुखं वेदान्तसम्मतम् ||

    गुरुदेव के श्रीचरणों में वेदान्तनिर्दिष्ट सुख है वह सुख न चार्वाक मत है, न वैष्णव मत है और न ही प्रभाकर (सांख्य) मत में है |

गुरुभावः परं तीर्थमन्यतीर्थं निरर्थकम् |

सर्वतीर्थमयं देवि श्रीगुरोश्चराणाम्बुजम् ||

    गुरुभक्ति ही श्रेष्ठ तीर्थ है | अन्य तीर्थ निरर्थक हैं | हे देवी ! श्री गुरुदेव के चरणकमल सर्व तीर्थमय हैं |

सर्वतीर्थवगाहस्य संप्राप्नोति फलं नरः |

गुरोः पादोदकं पीत्वा शेषं शिरसि धारयन् ||

    श्री सदगुरुदेव के चरणामृत का पान करने से और उसे मस्तक पर धारण करने से मनुष्य सर्व तीर्थों में स्नान करने का फल प्राप्त करता है |

गुरुपादोदकं पानं गुरोरुच्छिष्ट भोजनम् |

गुरुमूर्ते सदा ध्यानं गुरोर्नाम्नः सदा जपः ||

    गुरुदेव के चरणामृत पान करना, गुरुदेव के भोजन में से बचा हुआ खाना, गुरुदेव  की मूर्ति का ध्यान करना और गुरुनाम का जप करना चाहिए |

यस्य प्रसादहमेव सर्वं मय्येव सर्वं परिकल्पितं च |

इत्थं विजानामि सदात्मरूपं तस्यांघ्रिपदं प्रणोतोस्मि नित्यम् ||

    मैं ही सब हूँ | मुझसे ही सब कल्पित है | ऐसा ज्ञान जिनकी कृपा से हुआ ऐसे आत्मस्वरूप श्री सदगुरुदेव के चरणकमलों में मैं नित्य प्रणाम करता हूँ |

आकल्पजन्मकोटीनां यज्ञव्रततपः क्रियाः |

ताः सर्वाः सफला देवि गुरुसंतोषमात्रतः ||

    हे देवी ! कल्प पर्यन्त के, करोड़ों जन्मों के यज्ञ, व्रत, तप और शास्त्रोक्त क्रियाएँ, यह सब गुरुदेव के संतोष मात्र से सफल हो जाता है |

    ऐसे महिमावान श्री सदगुरुदेव के पावन चरणकमलों का षोड़शोपचार से पूजन करने से साधक-शिष्य का हृदय शीघ्र शुद्ध और उन्नत बन जाता है | मानसपूजा भी इस प्रकार कर सकते हैं |

    मन ही मन भावना करो कि हम गुरुदेव के श्री चरण धो रहे हैं … सर्वतीर्थों के जल से उनके पादारविन्द को स्नान करा रहे हैं | खूब आदर एवं कृतज्ञतापूर्वक उनके श्रीचरणों में दृष्टि रखकर … श्रीचरणों को प्यार करते हुए उनको नहला रहे हैं … उनके तेजोमय ललाट में शुद्ध चन्दन से तिलक कर रहे हैं … अक्षत चढ़ा रहे हैं … अपने हाथों से बनाई हुई गुलाब के सुन्दर फूलों की सुहावनी माला अर्पित करके अपने हाथ पवित्र कर रहे हैं … पाँच कर्मेन्द्रियों की, पाँच ज्ञानेन्द्रियों की एवं ग्यारवें मन की चेष्टाएँ गुरुदेव के श्री चरणों में अर्पित कर रहे हैं …

कायेन वाचा मनसेन्द्रियैवा बुध्यात्मना वा प्रकृतेः स्वभावात् 

करोमि यद् यद् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि ||

    शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से अथवा प्रकृति के स्वभाव       से जो जो करते करते हैं वह सब समर्पित करते हैं | हमारे जो कुछ कर्म हैं, हे गुरुदेव, वे सब आपके श्री चरणों में समर्पित हैं … हमारा कर्त्तापन का भाव, हमारा भोक्तापन का भाव आपके श्रीचरणों में समर्पित है |

    इस प्रकार ब्रह्मवेत्ता सदगुरु की कृपा को, ज्ञान को, आत्मशान्ति को, हृयद में भरते हुए, उनके अमृत वचनों पर अडिग बनते हुए अन्तर्मुख हो जाओ … आनन्दमय बनते जाओ … ॐ आनंद ! ॐ आनंद ! ॐ आनंद !

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